गीता प्रेस, गोरखपुर >> नित्ययोग की प्राप्ति नित्ययोग की प्राप्तिस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है नित्ययोग की प्राप्ति...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरिः।।
निवेदन
जो हमसे कभी अलग न हो सके और हम जिससे कभी अलग न हो सकें, वह तत्त्व क्या
है, उस तत्त्व का अनुभव कैसे हो, उसके अनुभव में जो बाधाएँ हैं, उनका
निवारण कैसे हो-यह विषय परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज अपने प्रवचनों
में बड़ी सरलता पूर्वक अनेक प्रकार से समझाया करते हैं। ऐसे कुछ
विशेष प्रवचनों का संग्रह आवश्यक संशोधन के साथ नित्ययोग की प्राप्ति
पुस्तक के रूप में साधकों की सेवा में प्रस्तुत है। इन प्रवचनों में
साधकों को साधन तथा साध्य के विषय में अनेक प्रेरणाप्रद विलक्षण बातें
मिलेंगी। साधकों से प्रार्थना है कि वे गम्भीरतापूर्वक इस पुस्तक का
अध्ययन करके लाभान्वित हों।
प्रकाशक
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
1. नित्ययोगकी प्राप्ति
संसार में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब-के-सब आगन्तुक हैं अर्थात् हरेक
पदार्थ का संयोग और वियोग होता है। क्रियाओं का आरम्भ होना क्रियाओं का
संयोग है और क्रियाओंका समाप्त हो जाना क्रियाओं का वियोग है। ऐसे ही
संकल्पों का भी संयोग और वियोग होता है। संकल्प पैदा हो गया तो संयोग हो
गया। और संकल्प मिट गया तो वियोग हो गया। अतः संयोग और वियोग पदार्थों के
साथ भी है। क्रियाओं के साथ भी है और मानसिक भावों के साथ भी है।
संयोग और वियोग—दोनों में अगर विचार किया जाय तो जो संयोग है, वह अनित्य है और जो वियोग है, वह नित्य है। यह खास समझने की बात है। जैसे, आपका और हमारा मिलना हुआ तो यह संयोग हुआ एवं आपका और हमारा बिछुड़ना हो गया तो यह वियोग हुआ। मिलने के बाद बिछुड़ना जरुर होगा, परन्तु बिछुड़ने के बाद फिर मिलना होगा–यह नियम नहीं। अतः वियोग नित्य है। पहले आप नहीं मिले तो वियोग रहा और आप बिछुड़ गए तो वियोग रहा। वियोग स्थायी रहा। जितनी देर आप मिले हैं, उतनी देर यह संयोग भी निरन्तर वियोग में ही बदल रहा है। जैसे, एक आदमी पचास वर्ष लखपति रहा। जब उसे लखपति हुए एक वर्ष हो गया, तब पचास वर्षो में से एक वर्ष कम हो गया अर्थात् एक वर्ष का वियोग हो गया। अतः संयोगकाल में भी वियोग है।
संयोग से होने वाले जितने भी सुख हैं, वे सब दु:खों के कारण अर्थात् दु:ख पैदा करनेवाले हैं- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता 5/22)। अत: संयोग में ही दु:ख होता है। वियोग में दु:ख नहीं होता। वियोग (संसार से संबंध-विच्छेद) में जो सुख है, वह अनन्त है, अपार है। उस सुख का वियोग नहीं होता; क्योंकि वह नित्य है। जब संयोग में भी वियोग है और वियोग में भी वियोग है तो वियोग ही नित्य हुआ। इस नित्य वियोग का नाम ‘योग’ है। गीता कहती है- ‘तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता 6/23) अर्थात् दु:खों के संयोग का जहाँ सर्वथा वियोग है, उसको योग कहते हैं। अत: संसार के साथ वियोग नित्य है और परमात्मा के साथ योग नित्य है।
‘योग’ नाम किसका है ? पातंजलयोगदर्शन ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा है- ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ (1 । 2)। परन्तु गीता समता को योग कहती है- ‘समत्वं योग उच्यते’ (2 । 48)। यह समता नित्य रहती है। संयोग से पहले भी समता है, अन्त में वियोग होने पर भी समता है और संयोग के समय भी समता है। इस प्रकार समता में नित्य स्थिति ही नित्ययोग है। इसलिए नित्य योग का जिसको अनुभव हो गया है; उसको गीता ने ‘योगारूढ़’ कहा है। योगारूढ़ की पहचान क्या है ? इसके लिये गीता ने तीन बातें बतायी हैं- पदार्थों में आसक्ति न होना, क्रियाओं में आसक्ति न होना और सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग होना—
संयोग और वियोग—दोनों में अगर विचार किया जाय तो जो संयोग है, वह अनित्य है और जो वियोग है, वह नित्य है। यह खास समझने की बात है। जैसे, आपका और हमारा मिलना हुआ तो यह संयोग हुआ एवं आपका और हमारा बिछुड़ना हो गया तो यह वियोग हुआ। मिलने के बाद बिछुड़ना जरुर होगा, परन्तु बिछुड़ने के बाद फिर मिलना होगा–यह नियम नहीं। अतः वियोग नित्य है। पहले आप नहीं मिले तो वियोग रहा और आप बिछुड़ गए तो वियोग रहा। वियोग स्थायी रहा। जितनी देर आप मिले हैं, उतनी देर यह संयोग भी निरन्तर वियोग में ही बदल रहा है। जैसे, एक आदमी पचास वर्ष लखपति रहा। जब उसे लखपति हुए एक वर्ष हो गया, तब पचास वर्षो में से एक वर्ष कम हो गया अर्थात् एक वर्ष का वियोग हो गया। अतः संयोगकाल में भी वियोग है।
संयोग से होने वाले जितने भी सुख हैं, वे सब दु:खों के कारण अर्थात् दु:ख पैदा करनेवाले हैं- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता 5/22)। अत: संयोग में ही दु:ख होता है। वियोग में दु:ख नहीं होता। वियोग (संसार से संबंध-विच्छेद) में जो सुख है, वह अनन्त है, अपार है। उस सुख का वियोग नहीं होता; क्योंकि वह नित्य है। जब संयोग में भी वियोग है और वियोग में भी वियोग है तो वियोग ही नित्य हुआ। इस नित्य वियोग का नाम ‘योग’ है। गीता कहती है- ‘तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता 6/23) अर्थात् दु:खों के संयोग का जहाँ सर्वथा वियोग है, उसको योग कहते हैं। अत: संसार के साथ वियोग नित्य है और परमात्मा के साथ योग नित्य है।
‘योग’ नाम किसका है ? पातंजलयोगदर्शन ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा है- ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ (1 । 2)। परन्तु गीता समता को योग कहती है- ‘समत्वं योग उच्यते’ (2 । 48)। यह समता नित्य रहती है। संयोग से पहले भी समता है, अन्त में वियोग होने पर भी समता है और संयोग के समय भी समता है। इस प्रकार समता में नित्य स्थिति ही नित्ययोग है। इसलिए नित्य योग का जिसको अनुभव हो गया है; उसको गीता ने ‘योगारूढ़’ कहा है। योगारूढ़ की पहचान क्या है ? इसके लिये गीता ने तीन बातें बतायी हैं- पदार्थों में आसक्ति न होना, क्रियाओं में आसक्ति न होना और सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग होना—
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।
(गीता 6 । 4)
तात्पर्य है कि इन्द्रियों के भोगों में और क्रियाओं में आसक्ति न हो तथा
भीतर से यह आग्रह भी न हो कि ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिए।
‘संकल्प’ नाम किसका है ? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं
होना
चाहिये, ऐसा मिलना चाहिये और ऐसा नहीं मिलना चाहिये, ऐसा संयोग होना
चाहिये और ऐसा संयोग नहीं होना चाहिये- इसको ‘संकल्प’
कहते
हैं। अत: न तो पदार्थों में आसक्ति हो और न पदार्थों के अभाव में आसक्ति
हो, न क्रियाओं में आसक्ति हो और न क्रियाओं के अभाव में आसक्ति हो तथा
कोई संकल्प न हो तो ‘योगारूढ़’ हो गया। तात्पर्य है
कि पदार्थ
मिले या न मिले, क्रिया हो या न हो, इनका कोई आग्रह नहीं हो-
‘नैव
तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता 3 । 18)। पदार्थ मिलें
तो
अच्छी बात, न मिलें तो अच्छी बात ! क्रिया हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी
बात ! संकल्प पूरा हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! वृत्तियों का
निरोध हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! अपना संबंध नहीं है इनसे।
इन्द्रियों के भोगों में और कर्मों में आसक्ति न होने का अर्थ हुआ- अचाह और अप्रयत्न होना। इन्द्रियों के भोगों में, पदार्थों में आसक्ति न हो तो ‘अचाह’ हो गये और क्रियाओं में आसक्ति न हो तो ‘अप्रयत्न’ हो गये। तात्पर्य है कि चाहना का भी अभाव हो और प्रयत्न का भी अभाव हो। अचाह और अप्रयत्न हुए तो परमात्मा से अभिन्नता स्वत: हो गयी। वास्तव में अभिन्नता हो नहीं गयी, अभिन्नता थी। अचाह और अप्रयत्न न होने से उसका अनुभव नहीं होता था। चाह और क्रिया का अभाव हुआ तो स्वरूप में स्थिति का, नित्ययोग का अनुभव हो गया।
परमात्मा में आपकी स्थिति निरन्तर है, आपकी समझ में आये या न आये। आप संसार के साथ जितना संबंध मानते हैं, उतनी आपकी नित्ययोग से विमुखता है ! संसार में सिवाय धोखे के कुछ मिलनेवाला नहीं है। संसार में सब संयोग का, संबंधों का वियोग ही होगा-
इन्द्रियों के भोगों में और कर्मों में आसक्ति न होने का अर्थ हुआ- अचाह और अप्रयत्न होना। इन्द्रियों के भोगों में, पदार्थों में आसक्ति न हो तो ‘अचाह’ हो गये और क्रियाओं में आसक्ति न हो तो ‘अप्रयत्न’ हो गये। तात्पर्य है कि चाहना का भी अभाव हो और प्रयत्न का भी अभाव हो। अचाह और अप्रयत्न हुए तो परमात्मा से अभिन्नता स्वत: हो गयी। वास्तव में अभिन्नता हो नहीं गयी, अभिन्नता थी। अचाह और अप्रयत्न न होने से उसका अनुभव नहीं होता था। चाह और क्रिया का अभाव हुआ तो स्वरूप में स्थिति का, नित्ययोग का अनुभव हो गया।
परमात्मा में आपकी स्थिति निरन्तर है, आपकी समझ में आये या न आये। आप संसार के साथ जितना संबंध मानते हैं, उतनी आपकी नित्ययोग से विमुखता है ! संसार में सिवाय धोखे के कुछ मिलनेवाला नहीं है। संसार में सब संयोग का, संबंधों का वियोग ही होगा-
सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छ्रया:।
संयोग विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।
संयोग विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।
(वाल्मीकि.2/105/16)
‘समस्त संग्रहों का अन्त विनाश है, लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन
है, संयोगों का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है।’
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